लोक सभा चुनाव परिणाम सर्वहारा के लिए क्या संदेश ले कर आए हैं ?

लोकसभा चुनाव आखिर पूरे हो ही गए। तमाम अटकलबाजियों और पूर्वानुमानों पर परदा गिराते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने केन्द्र सरकार की सत्ता संभाल ली हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बुर्जुआ समाचार माध्यमों में तमाम सर्वेक्षणों और चुनाव पश्चात किए गए अन्य सर्वेक्षणों ने पहले ही यह संकेत दे दिए थे कि भाजपा द्वारा ही सरकार बनाए जाने की संभावना ज्यादा है। लेकिन यह आशा शायद किसी को भी नहीं थी कि भाजपा को अपने बूते पर ही पूर्ण बहुमत हासिल हो जाएगा । चुनाव राजनीतिक संघर्ष का ऐसा मंच है जिस पर हरेक वर्ग अपने अलग तरीके से भागीदारी करने के लिए बाध्य होता है। शासक वर्गो के लिए बुर्जुआ लोकतां़ित्रक चुनाव बेशक सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते है क्योंकि इन्हीं चुनावों के जरिए वे ठोस रूप में यह तय करते है कि आने वाले दिनों में वे शासन कैसे चलाएंगे । जनता भी अपने तरीके से चुनावों में भाग लेती है और अपनी क्षमतानुसार अपने जीवन, अपने भविष्य को बदलने की कोशिश करती है। इसलिए चुनाव एक हद तक जनता की भावनाओं को प्रतिबिंबित करते है। लेकिन जब शोषित वर्ग एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं होते हैं तब वे चुनावों में व्यक्तिगत रूप में भाग लेते हैं और उन पर बुर्जुआ विचारों का असर होता हैं। इसलिए चुनाव न सिर्फ यह प्रदर्शित करते हैं कि शासक वर्ग और अन्य बुर्जुआ वर्ग किस तरह से देश की राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि एक सीमित अर्थ में वे उत्पीडि़त जनता की आकांक्षाओं को भी प्रतिबिंबित करते हैं। हमें चुनावों के समग्र नतीजों का विश्लेषण करने की जरूरत है ताकि हम भारतीय राजनीति की गति और दिशा को समझ सकें और यह समझ हमें अपनी भावी गतिविधियों को तय करने में एक हद तक मदद कर सकती है।

च्ुानाव परिणामों का विश्लेषण करते हुए हमें यह ध्यान रखना होगा कि हमें बुर्जुआ चुनाव विश्लेषकों की तरह किसी पार्टी या किसी उम्मीदवार की हार या जीत का वर्णन करने के लिए अत्यधिक ठोस और सटीक विश्लेषण करने की कोई जरूरत नहीं हैं । जैसाकि हमने पहले कहा है बुर्जुआ चुनावों के परिणाम शोषित वर्गो की राय या सरोकारों ेंको सिर्फ सीमित अर्थों में ही प्रतिबिंबित करते है और ये कभी भी संपुर्णता में या सही मायने में शोषित वर्गों की राय प्रदर्शित नहीं करते हैं। यह सामान्य तौर पर सच होता है कि बुर्जुआ लोकतंत्र के तहत कराए गए कोई भी चुनाव मजदूर वर्ग या मेहनतकश अवाम की स्वतंत्र राय को सही मायने में प्रदर्शित नहीं करते हैं खास तौर पर ऐसे समय पर जब मजदूर वर्ग और मेहनतकश अवाम की भारी तादाद अपने वर्ग हितों के बारे में जागरूक न हो । हमारे जैसे पिछड़े देश में जहां बुर्जुआ लोकतंत्र पुरी तरह से विेकसित नहीं हुआ है और जहां चुनावों में धोखाधड़ी आम बात है, वहां जनता का एक बड़ा हिस्सा या तो मतदान के अधिकार से वंचित है या स्थानीय दबंग तबकों या व्यक्तियों के दबाव में उनकी मरजी के अनुसार वोट डालने के लिए बाध्य है। इसके अलावा पार्टियां वोट खरीदने के लिए रिश्वत भी देती हैं। यहां तक कि विकसित बुर्जुआ लोकतंत्र में भी पूंजीपति वर्ग समाचार माध्यमों के जरिए और अन्य तरीकों से जनता को धोखा देते है और प्रभावित करते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब मजदूर वर्ग की बहुसंख्या अपने वर्गीय हितों के बारे में सचेत न हो, जब मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी मौजूद न हो - तब चुनाव जैसे राजनीतिक संघर्ष में मजदूर वर्ग की स्वतंत्र राय कभी भी प्रतिबिंबित नहीं हो सकती है। ऐसी स्थिति में सिर्फ मेहनतकश अवाम ही नहीं, मजदूर वर्ग का भी एक बड़ा हिस्सा बुर्जुआ राजनीति और बुर्जुआ विचारों से प्रभावित हो कर वोट डालता है। इसलिए विभिन्न वर्गों की वास्तविक गतिकी ऐसे मौकों पर सचेत रूप में अभिव्यक्त नहीं होती है और इसलिए उसे महज चुनाव नतीजों से नहीं समज्ञा जा सकता है। चुनाव परिणामों के आधार पर मेहनतकश अवाम की राय और हालात के बारे में थोड़ा बहुत अंदाजा तभी लगाया जा सकता है जब चुनावों के अलावा भी मजदूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के भीतर चल रही हलचलों के साथ जोड़ कर इनका विश्लेषण किया जाए।

च्ुानावों से काफी समय पहले ही यह सबके सामने स्पष्ट हो चुका था कि इस चुनाव में मोदी और भाजपा को बड़े पूंजीपतियों का सक्रिय समर्थन हासिल है। हमारे देश में इससे पहले हुए किसी भी चुनाव में इस तरह का नजारा हाल के वर्षों में कभी नहीं दिखाई दिया है। पिछले कुछ सालों से बड़े पूंजीपति संकट के दौर में से गुजर रहे है। हस संकट से पार होने के लिए वे मेहनतकश अवाम पर एक और भयानक हमला कर रहे हैं ताकि अपने संकट का बोझा वे मेहनतकश अवाम पर डाल सकें। इस काम के लिए उन्हें मोदी जैसे मजबूत प्रशासक की जरूरत है। उन्हें उम्मीद है कि संघ परिवार जैसी फासीवादी ताकत के खुले समर्थन से मोदी सफलतापूर्वक इस हमले को अंजाम पर पहुंचा देंगे। उनकी सोच है कि संसद के उपेक्षा कर मोदी इस काम को करने में कामयाब होंगे। हसी वजह से उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की उम्मीदवारी का बेशर्मी के साथ खुले आम सीधे सीधे समर्थन किया । उनके नियंत्रण में काम करने वाले समाचार माध्यमों ने भी बिना रूके हसी तरह की कोशिशें की । यह भी सुनने में आया कि उन्होंने भाजपा के लिए भारी भरकम धनराशि खर्च की है। मौजुदा हालात में जब वर्ग संघर्ष अत्यधिक कमजोर है, यह आशा की जा रही थी कि बड़े पुंजीपतियों के ऐसे प्रयास सफल होंगे और ठीक वैसा ही हुआ है।

समाज के अलग-अलग तबकों की बात की जाए तो हम देखेंगे कि समृद्वि की ओर बढ़ रहा निम्न पूंजीपति वर्ग बड़े पूंजीपतियों के इस अभियान से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है क्योंकि वैश्वीकरण और उदारीकरण से हुई कमाई में हिस्सा मिला है। यह कहना भी शायद गलत नहीं होगा कि वैश्वीकरण - उदारीकरण के पिछले बीस - बाईस सालों में उसकी जीवन शैली में जमीन - आसमान का फरक आ गया है। इस तबके का एक बड़ा हिस्सा कांगे्रस या यूपीए से बेहद असंतुष्ट था । इनका मानना था कि कांगे्रस या यूपीए द्वारा नीति विषयक निर्णय लेने मे दिखाई गई कमजोरी के चलते ही देश की आर्थिक दुर्दशा हुई है। इसके अलावा, बढ़ता भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और विशेषकर महिलाओं की असुरक्षा - इन सब कारणों से भी मध्य वर्ग मे काफी विरोध पनपा । उपरोक्त मुद्दों पर कांगे्रस और यूपीए सरकार की भूमिका से भी उनके बीच काफी आक्रोश उत्पन्न हुआ। इस तबके की काफी बड़ी तादाद ने इस चुनाव में मोदी और भाजपा का जोरदार समर्थन किया । शायद उन्हें मोदी में ऐसा मजबूत प्रशासक दिखाई दिया जो इन तमाम मुद्दों को ऊपर से संभाल सकने में समर्थ हो और मोदी की ओर आकृष्ट होने में यह एक महत्वपूर्ण कारण बन गया ।

इस चुनाव में भाजपा की जीत के बाद समाचार माध्यमों में दिखाई दिए उल्लास के प्रत्युत्तर में कुछ आलोचकों का कहना है कि समाचार माध्यमों द्वारा इस जीत को विशाल और ऐतिहासिक बनाए जाने के बावजूद यह एक तथ्य है कि भाजपा को कुल मतों में से महज 31प्रतिशत मत ही हासिल हुए हैं। इसके अलावा समूचे दक्षिण भारत में उनका प्रदर्शन बेहद खराब रहा है। यह सच है कि पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में उनका प्रदर्शन अतीत की तुलना में बेहतर हुआ है। फिर भी बिहार, झारखंड और असम के सिवाय इस क्षेत्र के किसी भी अन्य राज्य में उन्हें कोई ताकतवर पार्टी नहीं माना जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है। तथापि यह भी सच है कि भाजपा ने इस चुनाव में अनेक राज्यों में उल्लेखनीय प्रगति की है। भाजपा को गुजरात और समूचे हिंदी भाषी भारत में जबरदस्त बहुमत मिला है। महाराष्ट्र में भाजपा एक महत्वपूर्ण शक्ति के रुप में उभरी है। कई राज्यों में भाजपा को 50 प्रतिशत या अधिक मत हासिल हुए हैं। पंजाब को छोड़ दें , तो समूचे भारत में उसका मत प्रतिशत बढ़ा है और कई क्षेत्रों में तो इसमें काफी ज्यादा वृद्धि हुई है। समूचे भारत में भाजपा को विगत चुनावों की तुलना में लगभग 12प्रतिशत अधिक मत हासिल हुए हैं और इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। मुस्लिम समुदाय के लोगों ने आम तौर पर भाजपा के खिलाफ मत दिया हैं। 2002 में गुजरात में बड़े पैमाने पर हुए कत्लेआम में नरेन्द्र मोदी की भूमिका और भाजपा की आक्रामक हिंदू राजनीति के चलते ऐसा होना स्वाभाविक भी लगता है। और ऐसी स्थिति में भाजपा के लिए अपने मत प्रतिशत में इतनी ज्यादा वृद्धि हासिल करना असंभव होता अगर गैर-मुस्लिम समुदायों के गरीब मेहनतकशों के एक बड़े हिस्से ने भाजपा को वोट न दिया होता । सवाल यही है कि आखिर गरीब मेहनतकशों ने भाजपा को वोट क्यों दिया ? कांगे्रस ने तो खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसे राहत के कुछ उपाय भी किए थे। आखिर इन उपायों से वे गरीबों को अपनी ओर क्यों नहीं खींच पाए ? शायद अतीत में भाजपा और एन डी ए सरकार का कड़वा अनुभव अभी भी आम लोगों के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है। उस सरकार से क्षुब्ध होकर आम जनता ने कांगे्रस को लगातार दो बार सत्ता में बैठाया । क्या वह अनुभव अब गरीब जनता के दिमाग से मिट गया है ?

भाजपा के प्रति गरीब लोगों के वर्तमान में आकृष्ट होने में समाचार माध्यमों और मध्य वर्ग द्वारा दिए गए मजबूत मुखर समर्थन की बहुत बड़ी भूमिका रही है। हमने आम तौर पर यह देखा है कि जब गरीब मेहनतकश जनता अपने सच्चे हितों के प्रति जागरुक नहीं होती है, जब वह अलग से संगठित नहीं होती है, तब समाज के तथाकथित शिक्षित उच्च तबके के विचारों का उन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इस बार भी वैसी ही स्थिति की आशा करना स्वाभाविक है। लेकिन सिर्फ इतने से ही जनता के बीच उत्पन्न झुकाव की व्याख्या नहीं की जा सकती है। वास्तव में कांग्रेस सरकार ने राहत के कुछ उपायो के साथ वैश्वीकरण उदारीकरण की नीति के तहत जो उपाय किए थे (हालांकि बड़े पूंजीपतियों की मांगो की तुलना में वे अपर्याप्त थे), उनसे गरीब लोगों की रोजाना की समस्याओं में कई गुना इजाफा हो गया है । और सरकार द्वारा किए गए राहत के थोड़े बहुत उपायों का महज एक छोटा सा हिस्सा ही, भ्रष्टाचार और सरकारी बेरुखी से गुजरता हुआ, गरीबों तक पहुंच पाता है। लेकिन इसकी तुलना में इसी अवधि में महंगाई और बेरोजगारी की मार कई गुना अधिक हो गई है। इसका कारण शासक वर्ग की नीति है। अब, चूंकि इस चरण में शासक वर्ग की इस नीति को कांगे्रस सरकार ने लागू किया, तो गरीब जनता के हिसाब से उनकी जिंदगी की अन्य समस्याओं के अलावा महंगाई आदि के लिए कांगेस सरकार ही जिम्मेवार है। और इसलिए स्वाभाविक तौर पर आम जनता के बीच अपनी आजीविका से जुड़ी तमाम समस्याओं के कारण उत्पन्न आक्रोश चुनाव के दौरान कांगे्रस विरोधी वोट के रुप में अभिव्यक्त हुआ।

यहां हमें एक अन्य पहलू पर ध्यान देना होगा। हम सबको मालूम है कि वैश्वीकरण उदारीकरण के दौर में मजदूरों - किसानों और मेहनतकशों पर लगातार निर्बाध सघन हमले किए जा रहे हैं। पहले के बचे-खुचे लाभों और हकों को वापस लिया जा रहा है। और स्थायी रोजगार की जगह अस्थायी, कैजुअल असुरक्षित रोजगार आम बात बन रही है। मंहगाई आम हो गई है और तनख्वाह में होने वाली नाम मात्र की वृद्धि को भी खा जाती है। नतीजतन वास्तविक वेतन घट भी जाता है। आजकल गांवो में रोजगार के अवसरों में अत्यधिक कमी आ गई है। शहरो में भी रोजगार मिल पाना बेहद मुश्किल हो गया है। सबसे अहम बात तो यह है कि गैर बराबरी कई गुना बढ़ गई है और यह गरीब मेहनतकशों को हर घड़ी खाए जा रही हे। यह हमला कौन कर रहा है? बेशक भारत के शासक बड़ा पूंजीपति वर्ग । हालांकि चेतना विहीन पिछडे़ जन समुदाय की निगाह मे पार्टी और सरकार सामने दिखाई देती है क्योकि बड़े पूंजीपति शासक तो परदे के पीछे हैं। इस चरण मे वैसे तो केन्द्र और राज्यों में अलग अलग पार्टियो की सरकारें बनी है, लेकिन सभी पार्टियों ने सरकार बनाने के बाद एक ही तरह के हमले किए है। और गरीब जनता कही पर भी इन हमलों का प्रतिरोध नहीं कर पाई है क्योकि उन लोगो ने गरीबो के साथ विश्वासघात किया है जो एक समय मजदूरों किसानों के संघर्षो की अगली कतार में खडे़ हुआ करतें थे । उन्होंने मजदूरों और किसानो का साथ छोड़कर शत्रुओं के साथ हाथ मिला लिया है। इस अनुभव ने मजदूरों, किसानेां और गरीबों मे दो तरह की प्रवृत्तियोें को जन्म दिया है। एक ओर तो इस अनुभव ने उन्हें न केवल तमाम राजनीतिक दलों का आलोचक बना दिया है बल्कि उन्हें अलगाव में डाल दिया है और पार्टियों का घनघोर विरोधी बना दिया हे। मजदूरों के बीच और कभी कभी अन्य वर्गो के संघर्षकारी तबकों के बीच यही रुझान एक दूसरे तरीके से अभिव्यक्त होता है। इस रुझान के चलते मजदूर पुरानी सुधारवादी संशोधनवादी पार्टियों से अलग हुए हैं और खुद अपने नेतृत्व में अपने संघर्ष और संगठन खड़े कर रहे हैं । लेकिन यह रुझान मजदूरों के एक बेहद छोटे हिस्से में दिखाई देता है और वह भी सिर्फ फैक्टरी स्तर के संघर्ष में । यह तो हुआ पहला रुझान, पुरानी पार्टियों से अलग होना और स्वतंत्र रुप से संगठित होना। लेकिन जब मुद्दा हो चुनाव जैसे राजनीतिक संघर्ष का तब मेहनतकश अवाम तमाम राजनीतिक दलों के खिलाफ स्वतंत्र रुप से खड़े होने के बारे में नहीं सोच पा रहा है। और यह बात सिर्फ पिछडे आम मेहनती लोगों की नहीं है। वे मजदूर भी जो लड़ रहे है, फैक्टरी स्तर पर अलग से संगठित हो रहे हैं, वे भी वर्तमान में ऐसे किसी कदम के बारे में नहीं सोच पा रहे हैं। यह स्वाभाविक है क्योंकि पुरानी पार्टियो से अलग होकर चुनाव जैसे राजनीतिक सघर्ष में उनके खिलाफ लड़ना तभी संभव है जब गरीब मेहनतकश अवाम एक ऐसे राजनीतिक दल के प्रभाव या नेतृत्व में संगठित हो जिसकी अपनी एक राजनीित हो और जो इन पार्टियों की राजनीति का स्पष्ट रुप में विरोधी हो। हम सबको मालूम है कि आज ऐसी पार्टी मौजूद नहीं है। इसलिए जब गरीब मजदूर जनता चुनाव जैसी बड़ी राजनीतिक गतिविधि में भाग लेती हे तो अपनी असहमति के कारण एक राजनीितक दल के विरोध में दूसरे के साथ खड़ी हो जाती है । और इसका कारण है कि वह अपनी समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए हताश है और इस वजह से मौजूदा पार्टियों के सामने समर्पण कर देती है या समर्पण करने के लिए विवश हो जाती है। इससे पता चलता है कि हालांकि मेहनतकश अवाम का राजनीतिक दलों से मोहभंग हो चुका है और संसदीय लोकतंत्र के बारे में उसके अवचेतन में कुछ सवाल भी है, लेकिन फिर भी संसदीय लोकतंत्र से पूर्णतया मोहभंग होना अभी शेष है। मजदूर वर्ग की पार्टी की गैर मौजूदगी में , वर्ग संघर्ष में उतार के मौजूदा दौर में इससे ज्यादा कुछ की आशा करना मूर्खतापूर्ण होगा । देखने में यह परिघटना परस्पर अंतर्विरोधी लगती है कि एक ओर तो मेहनतकश अवाम का राजनीतिक दलों से मोहभंग हो रहा है, उनसे दूरी बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर चुनाव के समय वह इन्ही स्थापित राजनीतिक दलों से चिपके रहने की कोशिश करता है, इनके सामने समर्पण करता है, लेकिन फिर भी ये दोनों स्थितियां समाज मे फिलहाल सक्रिय उसी गतिकी के कारण मौजूद परिघटना के ही दो पहलू हैं । इस प्रक्रिया में हम देखते हैं कि शासक वर्ग की वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियो के तहत लगातार हमले जारी है, पुरानी पार्टियां विश्वासघात कर रही है, मजदूर वर्ग और गरीब जनता की तमाम पुरानी पार्टियों से दूरी बनी है और यह प्रक्रिया उन्हें एक नई पार्टी की ओर धकेल रही है । यह उन्हें मजदूर वर्ग की असली पार्टी बनाने और उसके तहत संगठित होने की दिशा में धेकल रही है। यह प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है क्योंकि उन्होंने अभी तक मजदूर वर्ग की असली पार्टी बनाकर खुद को उसके नेतृत्व में संगठित नही किया है और इसी कारण पीछे उल्लिखित परस्पर अंतर्विरोधी परिघटना दिखाई देती है । और इसलिए चुनाव नतीजों से इस निष्कर्ष पर पहुंचना सही नहीं होगा कि पुरानी पार्टियों से मेहनतकश अवाम के अलगाव की प्रक्रिया रुक गई है या उसकी दिशा बदल गई है। मजदूर वर्ग पुराने को छोड़कर नए के निर्माण की ओर संक्रमण की अवस्था में है और संक्रमण के इस दौर में उपर उल्लिखित दो रुझान परस्पर अंतर्विरोधी रुप में अभिव्यक्त हो रहे है। इस अंतर्विरोध को तभी हल किया जा सकेगा जब मजदूर वर्ग का संघर्ष और आगे विकसित होता हुआ मजदूर वर्ग की पार्टी का गठन करेगा जिसके जरिए मजदूर वर्ग अन्य मेहनतकशों के साथ मिलकर चुनाव के राजनीतिक संघर्ष में भाग लेगा और तमाम पुरानी राजनीतिक पार्टियांे से स्वतंत्र अवस्थिति अपनाएगा ।

इस चुनाव में भी लोगों ने कांगे्रस की जगह भाजपा को चुनकर अपने क्षोभ को व्यक्त किया है। पिछड़ेपन की सोच के चलते ऐसा लग सकता है कि भाजपा को मिले समर्थन का अभिप्राय एक बेहतर भविष्य के लिए सकारात्मक आशा से है लेकिन यह एक गौण पहलू ही है। अपने संगठित वर्गीय संघर्ष के जरिए शासक वर्ग के हमलांे को रोक पाने में विफल रहने के कारण मजदूर वर्ग और अन्य पिछड़ी मेहनतकश जनता हताशा मे सरकार बदल कर किसी प्रकार गुजर बसर करने की कोशिश कर रही है - और शायद उनके द्वारा भाजपा को दिए गए समर्थन का यही प्रमुख कारण है। और इसी कारण भाजपा को आम जनता से मिला समर्थन ऊपरी तौर पर चाहे कितना भी बड़ा क्यो न लगे, इसका कोई मजबूत वैचारिक या राजनीतिक आधार नहीं है और बुनियादी तौर पर यह अस्थिर प्रकृति का है।

भाजपा ने इस चुनाव में आक्रामक हिन्दुत्व के नारे का एक किनारे कर मुख्यत विकास के मुद्दे को सामने रखा । इस रणनीति का मकसद शायद बड़े पूंजीपतियों को संतुष्ट रखना और मध्य वर्ग को अपनी ओर खींचना था। निश्चित रुप से यह उनका चुनावी दाव-पेंच मात्र है। यह मानना बेवकूफी होगा कि उन्होने आक्रामक हिन्दुत्व के नारे के आधार पर हिन्दुओं को सांप्रदायिक रास्ते पर संगठित करना छोड़ दिया है या कि अब वे दंगे नहीं भड़काएंगे, या सांप्रदायिक दंगों में सक्रिय तौर पर भाग नही लेंगे या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकांे पर हमला नहीं करेंगेें उन्हें डराएंगे नहीं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण है कि भाजपा ने चुनाव जीतने के मकसद से किस तरह सें कुछ इलाकों में सांप्रदायिक खाई पेदा करने के लिए आक्रामक हिंदुत्व का इस्तेमाल किया। और यह सिर्फ चंद कट्टर नेताओं की बात नहीं है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर और आस पास के इलाकांे में भाजपा ने इस तरह की गतिविधियां बहुत ही संगठित तरीके से चलाई है। तथापि अगर पूरे देश के संदर्भ में देखंे तो इस बार के चुनाव में भाजपा की ऐसी भूमिका कम ही रही हे।

मौजूदा चुनाव परिणामों के परिपे्रक्ष्य मे, दो अहम पहलू दिखाई देते है। पहला, पिछले लगभग 20-25 सालांे से उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में जाति विभाजन का दबदबा रहा है, तथाकथित उच्चजातियों द्वारा निम्न जातियों का उत्पीड़न । इसलिए इस पूरे चरण में इन दोनों प्रदेशांे की राजनीति पर मुलायम मायावती लालू नीतिश जैसे राजनेताओं और उनके नेतृत्व वाली पार्टियांे का नियंत्रण रहा है जो जाति के मुददे पर ही बनी है। इस अवधि में इन दोनांे ही राज्यांे में कांगे्रस और भाजपा दोनों ही एक हद तक हाशिए पर चली गई थी। यह महत्वपूर्ण है कि इस बार इन दोनो ही राज्यांे में भाजपा को जबरदस्त बहुमत मिला है। उत्तर प्रदेश मंे इसने लगभग 90 प्रतिशत सीटें - भाजपा ने कुल 80 सीटो में से 71 और उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल ने 2 सीटें जीती है । बिहार में भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने 50 प्रतिशत से अधिक सीटंे जीती है। कुल 30 सीटों में से भाजपा ने 21 राम विलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी ने 6, और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने 3 सीटें जीती है। ये दोनो पार्टियां बिहार मंे भाजपा की सहयोगी है। उत्तर प्रदेश में मायावती की बी एस पी एक भी सीट नहीं जीत पाई जबकि बिहार में नीतिश कुमार केे जनता दल (यू) को सिर्फ 2 ही सीट मिल पाई । कया इसका यह अर्थ हुआ कि इन दोनो राज्यों में जातीय राजनीति का दबदबा खत्म हो रहा है? शायद अभी ऐसे किसी नतीजे पर पहंुचना जल्दबाजी होगी। जातीय उत्पीड़न की रोजाना घटने वाली अनेक घटनाएं इस तथ्य की स्पष्ट साक्ष्य है कि जातीय उत्पीड़न आज भी हमारे देश में विद्यमान है और इसका तब तक उन्मूलन नहीं किया जा सकता है जब तक जनवादी क्रांति पूरी नहीं हो जाती। लेकिन शायद यह चुनाव परिणाम यह दर्शाता है कि दलितों और अन्य उत्पीडि़त जातियों ने अपने साथ हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न की समाप्ति के लिए अभी तक इन पार्टियों पर भरोसा किया था और अब वह भरोसा समाप्त हो रहा है। अब वे इन पार्टियों पर और अधिक भरोसा करने की स्थिति में नहीं हैं और इन पार्टियों के बारे में एक हद तक उनका मोहभंग हो रहा हैं। यह भी हो सकता है कि चूंकि वे मेहनतकश हैं, उनकी जिंदगी की बुनियादी आर्थिक समस्याएं उन्हें ज्यादा अहम लग रही हैं और जातीय मुद्दा पृष्ठभूमि में चला जा रहा है। परिणामस्वरुप इन पार्टियों के प्रभाव में कमी आ रही है। फिर भी इन सब धारणाओं की पुष्टि के लिए हमें अभी आने वाले दिनो में इन राज्यों के राजनीतिक रुझानों को देखना होगा ।

दूसरे, इस चुनाव में वाम दलों के आधार में और ज्यादा कमी आई है। पश्चिम बंगाल में वे सिर्फ दो सीटें ही जीत पाए है। 1978 से आज तक कभी भी उनका प्रदर्शन इतना ज्यादा खराब नहीं रहा है। इससे पहले कभी ऐसा हुआ हो, यह हमें मालूम नहीं है। हालांकि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांगे्रस के प्रति जनता का असंतोष बढ़ा है, फिर भी उनका मत प्रतिशत बढ़ा है और ऐसा न केवल 2009 के संसदीय चुनावों की तुलना में है बल्कि 2011 के विधान सभा चुनावों के मुकाबले भी उसका मत प्रतिशत आंशिक तौर पर बढ़ा है । और कांगे्रस भी, अपने सबसे खराब दिनों के बावजूद, 2011 के विधान सभा चुनाव की तुलना में अपने मत प्रतिशत में, आंशिक ही सही, वृद्धि हासिल करने में कामयाब हुई है। दूसरी ओर वाम मोर्चे के मत प्रतिशत में 2009 के मुकाबले ही नहीं बल्कि 2011 की तुलना में भी गिरावट आई है - 2011 के बाद से वाम मोर्चे के मतों में 9.58 प्रतिशत की कमी हुई है। दूसरी ओर भाजपा को प्राप्त मतों का प्रतिशत बढ़कर 12.9 हो गया है। इस तरह से हम देखते है कि भाजपा की बढ़त मुख्यतया वाम मोर्चे की बदौलत ही हुई है। इसका क्या कारण है ?

अतीत में सीपीआई (एम) और वाम मोर्चे को चुनावो में जीत अपने उस जनाधार के समर्थन से मिलती थी जो उसने मजदूर वर्ग और किसानों के संघर्षो का नेतृत्व कर बनाया था। लेकिन लंबे समय तक सत्ता में रहने के दौरान उन्होने मजदूर वर्ग और मेहनतकशों के साथ दगाबाजी की, शोषक वर्गो के हितों की खुलेआम सेवा की , पार्टी ने मन-मरजी की, और इन सब कारणों से उसके जनाधार में लंबे समय से, भीतर ही भीतर, कमी आ रही थी । इसका मतलब यह है कि पिछले एक लंबे समय से उन्हें जो जन समर्थन मिल रहा था, उसकी वजह उनकी विचारधारा और राजनीति नहीं थी। हालांकि उनके मत प्रतिशत में पिछले एक अर्से से कमी आ रही थी फिर भी अगर वे किसी तरह से जीत पा रहे थे तो उसकी मुख्य वजह यही थी कि वे सत्ता में थे। लेकिन एक बार वे सत्ता से क्या हटे, औंधे मुंह गिर पड़े । उनके जनाधार का खोखलापन सबके सामने आ गया है और अब वे समाप्त होने की प्रक्रिया में हैं।

इस चुनाव में वाम मोर्चे के इतने खराब प्रदर्शन पर शोक व्यक्त करते हुए ‘‘वाम बुद्धिजीवियों’’ का एक हिस्सा इसे ‘‘वामपंथ की हार’’ का नाम दे रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे वाकई ‘‘वामपंथ’’ की हार’ कह सकते हैं? निश्चित तौर पर नहीं। पिछली सदी में 60 के दशक के अंत में भारत में और विशेषकर पश्चिम बंगाल में मजदूर वर्ग और किसानों का एक विशाल संघर्ष उठ खड़ा हुआ था जो क्रांतिकारी संभावनाओं से भरपूर था। उस वक्त इन तथाकथित वामदलो ने उन संघर्षो के साथ विश्वासघात किया था साथ ही वे इसी व्यवस्था क्े भीतर सरकार बना कर इन संघर्षों को राजनीतिक दायरे में सीमित रख पाने में भी कामयाब हुए थे। तभी से ही ‘‘वामपंथ‘‘ की हार की शुरूआत हो गई थी । सिर्फ हमारे देश में ही नही, छद्म वाम दलों के पतन की यह प्रक्रिया दुनिया भर में चल रही है। दुनिया भर में, पुरानी स्थापित कम्युनिस्ट पार्टियों के विश्वासघात के कारण, अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग आंदोलन विनाशकारी पराजय के एक लंबे दौर से होकर गुजर रहा है। हमारे देश में भी मजदूर वर्ग और किसानों के संघर्ष पीछे हट रहे है, मजदूर और किसान तितर-बितर है और वामपंथ भी कमजोर हुआ है। इन पार्टियों ने जितना ज्यादा विश्वासघात किया है उतना ही ज्यादा इनका मजदूरों, किसानों और मेहनतकशों से विलगाव बढ़ा है। इस चुनाव में इन वामदलों का निराशाजनक प्रदर्शन असल में उसी प्रक्रिया की परिणति है। इन पार्टियों ने वामपंथ को तो बहूत पहले ही छोड़ दिया था। इसलिये इस चुनाव ने ‘‘वामपंथ‘“ की हार‘‘को आगे और उजागर नहीं किया है । और यदि हम और गहराई में जाएं, तो हम समझ पाएंगे कि हस ‘“हार‘“ की जड़े ‘“वामपंथ‘“ शब्द के भीतर ही है। हमें याद होगा कि ‘“वामपंथ‘“ शब्द की उत्पत्ति पूंजीवादी संसदीय जनतंत्र के अखाड़े के भीतर ही हुई है और हमेशा ही इस शब्द का प्रयोग उस दायरे के भीतर स्थापित शासन की विरोधी शक्तियों के लिए किया गया था। इसलिए इस ‘“वामपंथ‘“ को पुनर्जीवित करना कभी भी कम्युनिस्ट“क्रांतिकारियों का कार्यभार नहीं हो सकता है। उनका लक्ष्य है मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष को पुनर्जीेंवित करना, समाज में ‘क्रांतिकारी बदलाव के लिए मजदूर वर्ग और किसानों के क्रांतिकारी संघर्षों को पुनर्जीवित करना। और इस कार्यभार को पुरा करना इन पार्ठियों या इनके संशोधित संस्करणों के लिए संभव नहीं है। सिर्फ मजदूर वर्ग ही अपने संघर्षों के जरिए इस काम को कर सकता है और वही इसे संपन्न करेगा । यदि बुद्विजीवियों का कोई हिस्सा वाकई चाहता है कि वामपंथी विचारधारा पुनर्जीवित हो, तो उसे वाम मोर्चे की सुधारवादी-संशोधनवादी राजनीति से पूर्ण विच्छेद करना होगा और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की राजनीति को अर्थात वर्ग संघर्ष की राजनीति को स्वीेकार करना होगा । सिर्फ इतना ही नहीं उन्हें उस वर्ग तक जाना होगा जिसमें क्रांतिकारी राजनीति को पुनर्जीवित करने का सामथ्र्य है अर्थात उन्हें मजदूर वर्ग के पास जाना होगा और स्वयं को उसके साथ एकीकार करना होगा। मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत मजदूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के लिए आने वाले समय में एक खतरे की ओर इशारा है। सबसे पहली बात तो यह है कि मोदी और माजपा की जीत के पीछे बड़े पूंजीपतियों का मजबूत समर्थन है और इसलिए उनके हित पूरे करने के लिए उनके पास जनता पर सघन और विनाशकारी हमले करने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं है । बड़े पुंजीपतियों के प्रतिनिधि आर्थिक नीतियों के संबंध में अपना नुस्खा पहले ही पेश कर चुके हैं । बेहद सुंदर और कूठनीतिक भाषा में उन्होंने जो मांगंे पेश की हैं उनका सार यही है कि विदेशी निवेश के लिए खुली छूट दी जाए, देशी-विदेशी पुंजीपतियों को करों में और छूट दी जाए, पेट्रोलियम और अन्य क्षेत्रों से सब्सिडी खत्म की जाए, कोयला और लोहे जैसे प्राकृतिक संसाधनों की लूट और दोहन पर लगी तमाम कानूनी रोकथाम को हठाया जाए, श्रम कानूनों में ऐसे बदलाव किए जाएं ताकि मजदूरों को मालिक की मरजी से काम से हठाया जा सके, पर्यावरण संबंधी कानूनों को ढीला किया जाए ताकि निवेश और मुनाफे में कोई अड़चन न आए, भूमि अधिग्रहण नीति में बदलाव किए जाए, आधारभूत ढांचे का विकास किया जाए और बंदरगाह आदि का निजीकरण किया जाए। इन सारी मांगों को पुरा करने का मतलब होगा महंगाई का अत्यधिक बढ़ जाना, मजदूरों के बचे-खुचे अधिकारों का खत्मा और हजारों-हजार किसानों की जमीन से बेदखली । और इन सब उपायों के किए जाने के बाद, यदि अर्थव्यवस्था में थोड़ा सुधार होता है तो रोजगार के कुछ अवसर पैदा हो सकते है। हालांकि ये रोजगार ठेके वाले होंगे जिनमें तनख्वाह बहुत कम होगी और कोई अधिकार नहीं होंगे । और अगर अर्थव्यवस्था में कोई सुधार नही होता है, तो रोजगार में और ज्यादा कमी आएगी, बेरोजगारी बढ़ जाएगी। बड़े पूंजीपति वर्ग द्वारा अपनी मांगों को खुलेआम पेश किए जाने से स्पष्ट है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा ये सब हमले करने के लिए बाध्य है और ऐसा करने के लिए उसे ज्यादा मोहलत भी नहीं दी जाएगी। इन सब हमलों से एक ओर तो जनता की दिक्कतें बढ़ेगी, साथ ही इन हमलों का विरोध करने का रूझान भी बढ़ेगा । सरकार और जनता के बीच का अंतर्विरोध और ज्यादा तीखा हो जाएगा ।

दूसरे, मेहनतकश जनता के लिए आने वाला खतरा यह है कि भाजपा के सत्ता में आने से आक्रमक, हिंसक हिंदुत्व शक्तियां और ज्यादा मजबूत बन जाएंगी। पुणे में हुई एक घटना में हिंदू राष्ट्र सेना के सदस्यों ने मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति की हत्या की है। आनेवाले दिनों में धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न बढ़ेगा और सांप्रदायिक खाई और अधिक बढ़ेगी। यह खाई संघर्षशील मेहनतकश अवाम की एकता के विकास की प्रक्रिया में बाधा बनेगी। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि भाजपा के पीछे फासीवादी संघ परिवार है जिसका जाल पुरे देश में फैला हुआ है और जिसके पास कार्यकर्ताओं का एक मजबूत आधार है। बड़े पुंजीपतियों के हुक्म के सामने भाजपा सरकार के सामने इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं होगा कि वह मजदूरों, किसानों और मेहनतकशों की आजीविका पर और ज्यादा जोरदार हमले करे। ऐसा करने पर सामाजिक उथल-पुथल बढ़ेगी। ऐसे हालात में, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शासक वर्ग संघ परिवार का इस्तेमाल कर इस उथल-पुथल को दबाने के लिए फासीवाद थोपने की दिशा में आगे बढ़े। इसलिए मोदी के नेतृत्व में भाजपा के उभार में यह अंतर्निहित है कि आने वाले दिनों में मजदूर वर्ग और मेहनतेकश जनता की आजीविका पर आसन्न हमलों के खतरे की घंठी बज रही है, उनके संगठन बनाने और संघर्ष करने के हक पर भी खतरा मंडरा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि उनका प्रतिरोध कौन करेगा ? संसदीय दायरे के भीतर स्थापित संसदीय पार्ठियों का विरोध इस बार विफल हुआ है। संभव है कि किसी भिन्न परिस्थिति में वे भाजपा को सŸाा में आने से रोकने में सफल हो जाएं। लेकिन ऐसे विरोध के जरिए वे जनता पर दक्षिणपथ्ंाी विचारधारा और राजनीति के प्रभाव को तो सीमित नहीं कर पाए हैं और न ही भविष्य में कर पाएंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये तथाकथित धर्म निरपेक्ष पुंजीवादी और निम्न पुंजीवादी पार्टियां संघ परिवार की राजनीति का विरोध करने में असमर्थ हैं क्योंकि वे स्वयं भी अलग-अलग तरीकों से धार्मिक-सांप्रदायिक विभाजन का इस्तेमाल करते है बेशक वे आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति नहीं करते है। चूंकि देश में बहुसंख्या हिंदु समुदाय की है, इसलिए इन दलों की राजनीति पर भी पर्याप्त हिंदू प्रभाव है। हालांकि वे संघ परिवार की फासीवादी विचारधारा का विरोध करते है, तो भी वे ठोस रूप में उसका सामना करने में असमर्थ हैं क्योंकि कहने में वे चाहे जो भी कहें, हकीकत में वे खुद लोकतंत्र के खिलाफ आचरण करते हैं। हसीलिए अलग-अलग मौकों पर हमने देखा है कि सरकार में सत्ता में हिस्सेदारी करने के लिए लगभग तमाम क्षेत्रीय और निम्न पूंजीवादी पार्टियों ने भाजपा के साथ हाथ मिलाया है। और जब उन्होंने भाजपा का विरोध किया है तब भी उनका मकसद सत्ता में रहना ही था। संशोधनवादी सुधारवादी पार्टियां भी भाजपा की राजनीति का कारगर प्रतिरोध करनी की स्थिति में नहीं हैं। बल्कि यह इन पार्टियों के विश्वासघात और सिद्व़ांतहीन अस्तित्व के कारण ही है कि समाज में दक्षिणपंथी विचार धारा मजबूत हंुई है।

केवल एक शक्ति है जो समाज को भाजपा -संघ परिवार के हमले के खतरे से बचा सकती है और यह शक्ति है मजदूर वर्ग । यह कोई हठधर्मिता नहीं है बल्कि हकिकत पर आधरित सच है। यह सही है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों में भी बहुत सारे लोग मजदूर वर्ग की मौजूदा बिखराव और असंगठित स्थिति के मद्दे नजर उसकी शक्ति में भरोसा खो बैठे है। इसीलिए हम देखते है कि अलग-अलग मौकों पर कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों में से भी अनेक लोग संसदीय पार्टियों के शिविर की ओर चले गए हैं। मजदूर वर्ग इसलिए ऐसी एकमात्र शक्ति है। क्योंकि यही वर्ग वैश्वीकरण के हमलों का सबसे बड़ा निशाना रहा है। इसलिए इस वर्ग के सामने वैश्वीकरण के हमलों का सामना करने के सिवाय कोई अन्य उपाय नहीं है। इस मंुद्दे पर निम्न पूंजीपति वर्ग के भी अलग-अलग तबकों में डगमगाहट है क्योंकि उनके एक बड़े हिस्से को वैश्वीकरण की नीतियों से फायदा हंुआ है। दूसरी ओर बड़े पूंजीपति वर्ग द्वारा लगातर जारी हमले मजदूर वर्ग को हर घड़ी आपस में एकजुट होने की दिशा में धकेल रहे हैं ताकि एक एकताबद्व संघर्ष खड़ा हो सके । चुंकि मजदूर वर्ग पर हो रहे हमलों की प्रकृति आम तौर पर पूरे देश में एक जैसी है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि संघर्षरत मजदूरों में एकजुट होने का वस्तंुगत रूझान होगा और हकिकत में यह एकता संभव भी है। लेकिन गांवों के गरीब के मामले में यह संभव नहीं है कि वे अपनी पहल पर एकजुट हो सकें। इसके अलावा यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वस्तुगत तौर पर मजदूर वर्ग ही ऐसी शक्ति है जिसमें कारगर प्रतिरोध खड़ा करने की सामथ्र्य है क्योंकि देश की उत्पादन व्यवस्था के एक बड़े हिस्से में उनका दखल है। बेशक ये सब वस्तुगत संभावनाए है, आज की सच्चाई नहीं । यह संभावना हकीकत में तभी तब्दील होगी जब मजदूर वर्ग पराजय की जंजीरों को फैंक कर, बिखराव की स्थिति से उबर कर सीना तान कर उठ खड़ा होंगा, शासक वर्गों के हमलों के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होंगा और समाज के तमाम मेहनतकश तबको को संगठित करेगा । इस तरह आज के मजदूर वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया के जरिए मजदूर वर्ग में रुपांतरित हो जाएगंे।

इस चुनाव में बड़े पूंजीपतियों की योजना के अनुसार मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत हुई है। एक तरह से यह मजदूर वर्ग और तमाम मेहनतकश जनता के खिलाफ बड़े पूंजीपतियों का युद्व घोष है। और ज्यादा स्पष्ट तौर पर कहें, यह पहले से जारी युद्व को तेज करने की घोषणा है। सिर्फ इतना ही नहीं, इसके जरिए बड़े पूंजीपति वर्ग को अपने खुद के वर्ग हित में समाज की प्रतिक्रियावादी धुर दक्षिणपंथी ताकतों को मजबूत किया है। यह न सिर्फ मजदूर वर्ग किसानों और तमाम मेहनतकशों के लिए खतरे का संकेत है बल्कि तमाम दलितों और अल्पसंख्यक मेहनतकशों के लिए भी खतरे की घंटी है। यह तमाम प्रगतिशील तबकों के लिए खतरे का संकेत है, यह समग्रता में प्रगति के लिए खतरा है। यह सच है कि आज मजदूर वर्ग ऐसी स्थिति में नहीं है कि अपने खिलाफ घोषित युद्व का समुचित जवाब दे सके , लेकिन हमे उन पर यह विश्वास है कि आने वाले दिनों मे वे निश्चित तौर पर ऐसा करने में समर्थ होंगे । वास्तव में पूंजीपति वर्ग अपने हमलों को बड़ा कर खुद मजदूर वर्ग को विवश कर रहा है कि वह खड़े हो कर प्रतिरोध करे ।

मजदूर वर्ग भी कुछ छोटे-छोटे प्राथमिेक कदम उठाता हंुआ, बेशक लड़खड़ाते हंुए ही सही, संगठित होने, एकजुट होने की दिशा में शुरुआत कर चुका है। भारत के तमाम मेहनतकशों का भविष्य इस सवाल पर निर्भर करता है कि क्या मजदूर वर्ग तमाम बाधाओं को पार करता हुआ इस यात्रा पर आगे बठ़ पाएगा और क्या वह मेहनतकश अवाम को एकजुट कर बड़े पूंजीपतियों के खिलाफ सही मायने में प्रतिरोध खड़ा कर पाएगा। कम्युनिस्ट क्रांतिकारी के रुप में हमारा पहला कार्यभार है कि हम अपने सीमित सामथ्र्य के अनुसार पूरी कोशिश लगा कर मजदूर वर्ग की उस यात्रा में आगे बठ़ने के लिए उठ खड़े होने और एकजुट होने में मद्द करें । और उसी मकसद को ध्यान में रखते हुए हमें मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश अवाम के अगुवा तबकांे को सचेत करने की जरूरत है ताकि मजदूर वर्ग के संगठित होने में मदद करने की इस गतिविधि में वे अपनी भूमिका अदा कर सकें।




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