असल में देश पर राज कौन करता है?
पार्टियों द्वारा बनाई गई सरकार या कोई और?

एक के बाद एक चुनाव होते हैं। एक सरकार के बाद दूसरी सरकार आती हैं। एक पार्टी की सरकार की जगह दूसरी पार्टी की सरकार ले लेती है और फिर उसकी जगह किसी तीसरी पार्टी की सरकार बन जाती है। और यह चलता रहता है। मजेदार बात यह है कि सभी पार्टियां यह दावा करती हैं कि वे समाज के दलित उतपीड़ित तबकों के लिए, मेहनतकशों की भलाई के लिए काम करना चाहती है। फिर भी, ‘‘आजादी’’ आने के समय से गरीब मेहनतकश अवाम के हालात में कोई सुधार नहीं हुआ हें इसके उलट, अमीर और ज्यादा अमीर हुए हैं। जिसके पास एक या दो फैक्टरी थी, वे आज देश के बड़े उद्योगपति बन गए हैं। भारतीय उद्योगपति आज विदेशों में भी कंपनियां लगा रहे हैं या खरीद रहे हैं। भारतीय उद्योगपतियों के नाम विश्व के सबसे ज्यादा अमीरों की लिस्ट में शामिल हैं। और पता नहीं यह कैसा जादू है कि बात होती है गरीबों को फायदा पहुंचाने की, और फायदा मिलता है अमीरों को।
लेकिन ऐसा क्यों होता है? हम ही तो वोट डालते हैं। हम वोट के जरिए सरकारें बदल देते हैं। लेकिन इस सबसे न तो अमीरों को होने वाला फायदा रूकता है और न ही मजदूरों और अन्य गरीबों की बदहाली रूकती है। पूंजीपति वर्ग द्वारा मेहनतकश अवाम पर होने वाले हमलों पर भी इससे कोई रोक नहीं लग पाती है। छंटनी, तालाबंदी, काम का बढ़ता बोझ या ठेका मजदूरी-हर चीज बदस्तुर जारी रहती है। बेराजेगारी, महंगाई और गरीबी-गरीबों की समस्याओं का कोई हल दिखाई नहीं देता है। किसान ख्ेाती छोड़ रहे हैं और गांवों में कोई काम नहीं है। और यह साफ नहीं हो पाता है कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है।
लेकिन देश को चलाने के लिए, समाज की गति को जारी रखने के लिए किसी न किसी तरह के राज की जरूरत होती हे। देश को चलाने के लिए नीतियों की, दिशा की जरूरत होती है और इस सबके लिए फैसले लेने होते हैं। तो फिर, कौन है जो इस देश पर राज कर रहा है? और यह राज किन लोगों पर किया जा रहा हैं?

इस देश पर कौन लोग राज कर रहे हैं?

सीधी भाषा में बात करें, इस समाज में दो तरह के लोग हैं। एक वे जिनके पास अपने शरीर और मेहनत के अलावा और कुछ भी नहीं है। ये लोग अपनी मेहनत बेचते हैं। इन्हें मजदूर कहा जाता है। इस मेहनत को बेचने की एवज में उन्हें दिहाड़ी मिलती है और यही उनके जीवित रहने का एकमात्र साधन है। इस श्रेणी के लोगों की तादाद ज्यादा है। दूसरे गु्रप में वे लोग हैं जो पहले गु्रप के लोगों की मेहनत को खरीदते हैं। वे इस मेहनत का इस्तेमाल उत्पादन के लिए करते हैं। और यह उत्पादन फैक्ट्रियों में भी हो सकता है या फिर खेतों में भी। यह लोग फैक्ट्रियों या जमीन के मालिक होते हैं। और वह जो उत्पादन के लिए अपना श्रम लगाता है उसका अपने श्रम से बने उत्पाद पर कोई नियंत्रण या हक नहीं होता है। उत्पादन पर पूरा नियंत्रण और मालिकाना हक मालिकों का होता है। इस तरह से समाज का विभाजन होता है - एक ओर होते हैं सारे मालिक अर्थात पूंजीपति, और दूसरी ओर होते हैं सारे मजदूर अर्थात मजदूर वर्ग।
इसके अलावा ऐसे किसान होते हैं जिनके पास जमीन नहीं होती है और वे भूस्वामियों से जमीन लेकर खेती करते हैं। ये भूस्वामी लोग अपनी जमीन पर काम नहीं करते हैं और न ही उन्हें उत्पादन की कोई फिक्र होती है। लेकिन उनकी जमीन लेकर खेती करने वाले किसानों की कड़ी मेहनत से हुए उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा भूस्वामियों के हिस्से में आता है। राजाओं और जमींदारों के वक्त में भूस्वामियों का राज चलता था। आज उनके नियंत्रण या दबदबे में काफी कमी आ गई है। आज वे पूरे देश में राज करने में समर्थ नहीं हैं।
इसलिए अब दो प्रमुख वर्ग बचते हैं - मालिक या पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग। ऐतिहासिक तौर पर, हरेक दौर में किसी एक या दूसरे वर्ग का राज रहा है - जैसे एक दौर में जमींदारों का राज था। इसलिए दो मौजूदा वर्गों में से आज किसी एक का राज हो सकता है।
अब, क्या मजदूर वर्ग समाज पर राज कर रहा है? क्या फैक्ट्रियां मजदूरों की मर्जी से चलती हैं? क्या मजदूर उत्पादन के बारे में फैसला करते हैं? क्या मजदूरों के पास यह अधिकार हैं कि अगर मालिक लोग कानून को तोडें तो वे उन्हें दण्डित कर सकें? नहीं। एक बात तो निश्चित तौर पर कही जा सकती हैे मजदूर वर्ग देश को नहीं चलाता है। अब बचता है पूंजीपति वर्ग। देश पर पूंजीपतियों का राज है।

पूंजीपति वर्ग देश पर कैसे राज करता है?

मालिक और पूंजीपति लोग देश को कैसे चलाते हैं? पूंजीपति या मालिक खुद तो चुनाव लड़ते नहीं हैं और न ही वे मंत्री बनते हैं। तो फिर वे अपना राज कैसे चलाते हैं?
असलियत में राज करने के दो ढांचे हैं। एक को अस्थाई ढांचा कह सकते हैं क्योंकि इसमें बदलाव हो सकता है -जैसे विधान सभा या लोेेक सभा या इनके जरिए बनने वाली सरकारें। यह बदलाव लोग कर सकते हैं।
लेकिन राज चलाने का एक दूसरा ढांचा भी होता है जो स्थाई होता है क्योंकि इसे बदला नहीं जा सकता है। डीएम, एसडीओ, बीडीओ जैसे अधिकारी या केन्द्र और राज्यों में बैठे सचिव - क्या उन्हें बदला जा सकता है? कानूनी व्यवस्था में बैठे लोग - क्या उन्हें बदला जा सकता है? इन लोगों को तो हमारे वोट से नहीं चुना जाता है। इसलिए हम हरेक पांच सालों में सरकार बदल सकते हैं, मंत्री बदल सकते हैं लेकिन राज करने या चलाने के लिए यह स्थाई ढांचा मुख्य बुनियाद का काम करता है।
आप अपने वोट से जिन लोगों को जिता कर सरकार में बैठाते हैं वे पहले से तय नियमों -नीतियों के अनुसार काम करने के लिए बाध्य हैं। राज के स्थाई ढांचे में बैठे लोगों का काम यह सुनिश्चित करना होता है कि जो भी पार्टी सरकार बनाए वह पूंजीपति वर्ग के हितों की रक्षा के लिए काम करें। यह ढांचा ढेरों अदृश्य धागों से पूंजीपति वर्ग के साथ बंधा रहता है। अगर पूंजीपति वर्ग को लगता है कि कोई सरकार उनके हितों के अनुसार काम नहीं कर रही है तो वे जरूरत पड़ने पर ऐसी सरकार को बर्खास्त कर सकते हैं। इस तरह की एक घटना 1990 में हुई थी जब असम में चुनी हुई एजीपी सरकार को भंग किया गया था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कुछ दिन पहले एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के चाय बागान के कुछ अधिकारियों का ‘उल्फा’ के लोगों ने फिरौती के लिए अपहरण कर लिया था और ए.जी.पी. सरकार पर आरोप लगा था कि उसने उल्फा से निबटने के लिए पर्याप्त कड़े कदम नहीं उठाए थे। एजीपी सरकार के गिरने के बाद असम में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और फिर सशस्त्र बलों के जरिए भयानक दमन चक्र चलाया गया। इसी तरह की घटनाएं 1967 और 1969 में पश्चिम बंगाल में भी हुई थी। मजदूरों और किसानों के संघर्षों के फलस्वरूप संयुक्त मोर्चा सरकार बनी। हालांकि संयुक्त मोर्चा सरकार का नेतृत्व समझौता परस्त था लेकिन फिर भी मजदूरों के जमीनी संघर्षों के दबाव में सरकार को पूंजीपतियों के खिलाफ कुछ कदम उठाने पड़े थे। लेकिन इतना भी पंूजीपतियों को बर्दाश्त नहीं था। जनता के वोटों से चुनी गई सरकार को पूंजीपतियों के हितों के लिए बर्खास्त कर दिया गया।
यही कारण है कि सरकार बनाने वाली पार्टियों पूंजीपतियों के लिए काम करने को बाध्य होती हैं लेकिन ऐसा करते समय ये सरकारें ऐसा दिखावा करती हैं मानों वे जनता के हित में काम कर रही हों।
उदाहरण के तौर पर, जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में बैंकों और कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तब जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की गई थी कि यह उसके हित में किया गया है। और अब जब बैंकों और कोयला खदानों का निजीकरण किया जा रहा है तब भी यही कहा जा रहा है कि ये कदम आम जनता के हित में ही लिए जा रहे हैं। ऊपरी तौर पर अजीब लगने वाली इन घटनाओं के पीछे का असली कारण क्या है? यह है पूंजीपति वर्ग के हित।
पूंजीपतियों द्वारा बनाई गई फैक्ट्रियों में उनका व्यक्तिगत निवेश बहुत कम होता है। बड़ी पूंजी बैंकों से आती है। पहले जब बैंकों का स्वामित्व निजी हाथों में था तब आम लोग बैंकों में पैसा रखने में डरते थे क्योंकि उन्हें भय होता था कि कहीं उनका पैसा डूब ना जाये। बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद से जनता में यह डर नहीं रहा। उन्होंने अपनी सारी बचत बैंकों में रखनी शुरू कर दी। अब जनता की इस बचत को बैंक पूंजीपतियों को अपना कारोबार बढ़ाने के लिए देने लगे। अगर बैंक राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ होता, तो क्या बैंकों के लिए पूंजीपतियों को जरूरी पूंजी उपलब्ध कराना संभव हो पाता? नहीं। बैंक राष्ट्रीयकरण के पीछे का असली कारण पूंजीपतियों का यही हित था। सरकार ने बैंक राष्ट्रीयकरण आम जनता के लिए नहीं किया था। इस सबके बावजूद उस वक्त हमें यह समझाया गया कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण आम जनता के लिए किया गया था।
इसी तरह से खदानों के राष्ट्रीयकरण के पीछे भी पूंजीपतियों के हित ही थे। क्या इन खदानों से निकलने वाले कोयले या लोहे का इस्तेमाल आम आदमी ने किया? इसका इस्तेमाल पूंजीपतियों की फैक्ट्रियों में उत्पादन कार्यों के लिए किया गया। सरकारी धन से अर्थात आम जनता के पैसों से कोयले और लोहें का खनन हुआ और फिर सस्ते दामोें पर इन्हें पूंजीपतियों की फैक्ट्रियों को बेच दिया गया ताकि वे अधिकाधिक मुनाफा कमा सकें।
आज पूंजीपतियों की पूंजी की ताकत कई गुणा अधिक बढ़ गई है। अब वे उन क्षेत्रों में निवेश करना चाहते हैं जहां वे पहले निवेश कर पाने योग्य नहीं थे। इसलिए आज पूंजीपति वर्ग चाहता है कि तमाम सरकारी संगठन निजी निवेशकों को सौंप दिए जाये। परिणामस्वरूप 1991 में निजीकरण शुरू हुआ। सरकारें चाहे कांग्रेस की हों या भाजपा की या किसी और पार्टी की सभी सरकारंे निजीकरण के काम को आगे बढ़ा रही हैं। और प्रचार यह किया जा रहा है कि सरकारी क्षेत्र के निजीकरण का काम आम जनता के हित में किया जा रहा है।
पहले, अगर विदेश से किसी सामान का आयात किया जाता था तो हमारे देश के पूंजीपतियों को नुकसान होता था, उनका मुनाफा कम हो जाता था। इसलिए विदेश से सामानों के आयात पर तमाम तरह की रोक थी। आज वैश्वीकरण का युग है। बड़ी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया भर में अपनी इच्छा से माल बेचना चाहती है, पूंजी निवेश करना चाहती है। राष्ट्रीय पूंजीपतियों के हित भी इसके साथ जुड़े हुए हैं। वे भी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिस्सेदार बनना चाहते हैं, ताकि वे विदेशों में अपना उत्पाद बेचकर अपने कारोबार को फैला सकें। इसलिए आज विदेशों से सामानों के आयात पर न के बराबर टैक्स है। विदेशों से आयात के मामले में लगी रोक को पर्याप्त रूप से ढील दे दी गई है - आज प्रतिबंध लगभग न के बराबर है।
एक जमाने में ‘हरित क्रांति’ का नारा दिया गया था। इसमें ऊर्वरक, बीज और कीटनाशक उत्पाद बनाने वाली विदेशी कंपनियों के हित जुड़े हुए थे, लेकिन कहा यह गया कि इससे किसानों को फायदा होगा। आज ‘हरित क्रांति’ के बाद के दौर में जब गरीब और मध्यम किसान अत्याधिक गरीब हो गये हैं, जब ये किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और खेती छोड़ रहे हैं, तब खेती की समूची प्रक्रिया पर राष्ट्रीय और विदेशी कंपनियों का नियंत्रण थोपने का मकसद से एक ‘दूसरी हरित क्रांति’ का नारा दिया जा रहा है।
पिछले बीस वर्षों के दौरान हमने देखा है कि आर्थिक नीतियों के मामले में तमाम पार्टियों की सरकारों ने एक जैसी नीतियां ही अपनाई हैं। आम तौर पर इसके लिए हम सरकार बनाने वाली पार्टियों को ही दोषी ठहराते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि वैश्वीकरण-उदारीकरण की नीति ने सभी पूंजीपतियों को एकजुट कर दिया है। चूंकि वैश्वीकरण - उदारीकरण की नीति में समूचा पूंजीपति वर्ग एकजुट है, इसलिए जो भी पार्टी सत्ता में आई है उसने हमेशा इसी नीति को लागू किया है।
सच यह है कि सरकार पूंजीपति वर्ग के लिए प्रबंधक का काम कर रही है। हमें फैक्ट्रियों का अनुभव है। फैक्टरी का मालिक वहां एक प्रबंधक को नियुक्त करता है ताकि वह मालिक के हित के अनुसार फैक्टरी को चलाए। अगर वह प्रबंधक मालिक के हितों की ठीक तरह से रक्षा कर पाता है, अगर वह मालिक के मुनाफे को बढ़ा पाता है, तब तो उस प्रबंधक की नौकरी बरकरार रहेगी, उसकी पदोन्नति भी हो सकती है और अगर मालिक खुश हुआ तो प्रबंधक को ईनाम भी मिल सकता है। लेकिन अगर यह प्रबंधक मालिक की इच्छानुसार फैक्टरी को नहीं चला पाया और अगर उसने मालिक का मुनाफा नहीं बढ़ाया तो मालिक उसे नौकरी से हटा देगा और उसकी जगह दूसरा प्रबंधक रख देगा। देश के मामले में भी स्थिति ऐसी ही है। यहां देश को पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुसार चलाया जाता है, पूंजीपति ही इस देश के असली मालिक हैं। सरकार पूंजीपतियों के हितों के अनुसार देश का प्रबंधन करती है और पूंजीपतियों के हित में ही देश को चलाती है। और जब कभी मजदूर किसान-मेहनतकश जनता पूंजीपति वर्ग की लूट के खिलाफ आवाज उठाती है तो पुलिस- प्रशासन-कानूनी व्यवस्था की सारी मशीनरी ऐसे विरोध को विफल करने पर तुल जाती है।
पिछल कुछ सालों के दौरान पश्चिम बंगाल के, जूट मजदूरों ने मिल मालिकों के दमन के खिलाफ अलग-अलग फैक्ट्रियों में बार-बार हड़तालें की। मजदूरों ने स्थापित यूनियनों को दरकिनार कर खुद हड़तालों का आयोजन किया। और लगभग हरेक हड़ताल के वक्त पुलिस ने बगैर किसी उकसावे या बहाने के हड़ताल तोड़ने के लिए मजदूरों पर हमले किए हैं। हड़ताली मजदूरों को गिरफ्तार किया गया (हालांकि उन्होंने कोई कानून नहीं तोड़ा) और उन्हें हड़ताल खत्म करने के लिए दबाव डाला गया। लेकिन जूट मिल मालिक मजदूरों की न्यायोचित देय राशि को लूट रहे हैं। हजारों हजार करोड़ रूपये की लूट हो रही है। मिल मालिक कानून तोड़ रहे हैं। लेकिन उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा रही है। उन्हें गिरफ्तार करना तो दूर की बात है।
गुड़गांव मानेसर की मारूति कंपनी के मजदूरों का मामला ली जिए। कंपनी प्रबंधन के खिलाफ संघर्ष के दौरान उनमें से कई को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। कंपनी में एक घटना में एक प्रशासनिक अधिकारी की मौत के बाद 144 मजदूरों को गिरफ्तार किया गया, हत्या का मामला बनाया गया और अभी तक उन्हें जमानत पर रिहा नहीं किया गया है। बलात्कारियों और हत्यारों को भी जमानत दे दी जाती है। लेकिन चूंकि मजदूर मालिक के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें जमानत नहीं दी जा रही है। मजदूरों की जमानत क्यों नामंजूर की जा रही है? अदालती फैसले के हिसाब से, इस घटना की वजह से विदेशी निवेशकों में भारत में निवेश के खिलाफ डर पैदा हो सकता है। इसलिए मजदूरों को जमानत नहीं दी सकती है। क्या इन घटनाओं से यह संकेत नहीं मिलता है कि पुलिस प्रशासन कानूनी व्यवस्था वाला यह स्थाई ढांचा किसके हितों के लिए काम करता है ?

मजदूर वर्ग महज सरकारें बदल कर आजादी हासिल नहीं कर सकता है।

और इसी वजह से मजदूरों और किसानों की प्रमुख समस्याओं को महज एक पार्टी की सरकार की जगह दूसरी पार्टी की सरकार को बैठा कर हल नहीं किया जा सकता है। इस सच का एहसास हमें खुद अपने अनुभव से हो जाता है। एक कहावत है कि जो भी लंका जाता है, वहीं रावण बन जाता है। ऐसा क्यों कहा जाता है? इसलिए कि जो भी पार्टी सरकार बनाती है उसे पूंजीपति वर्ग के हितों की पूर्ति करनी होती है। अगर कोई पार्टी सरकार बनाने के बाद पूंजीपति वर्ग के हितों की पूरी तरह से सेवा नहीं करती है, तो उसे सत्ता से बाहर कर दिया जायेगा। जैसे एक बार 1967 में या 1969 में पश्चिम बंगाल की सयुक्त मोर्चा सरकार के साथ हुआ था। अन्यथा ऐसी पार्टी को पूंजीपतियों की इच्छा के हिसाब से खुद को ढालना होता है। जैसे 1967 - 69 में संयुक्त मोर्चा सरकार के अनुभव के बाद जब 1977 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सत्ता में आया तो उसने खुद को बदल कर पूंजीपतियों की सेवा में पूरी तरह समर्पित कर दिया। और खुद को लगातार बदलने की कोशिश में अंततोगत्वा व कैसे पूंजीपतियों के गुलाम बन गए हैं यह आप सबने खुद अपनी आंखों से ही देखा है।
आज आम आदमी पार्टी बहुत सारी बातें कह रही है। यह पार्टी कोई मजदूर वर्ग का संगठन तो है नहीं, स्वाभाविक है कि उन्होंने कभी भी शोषण से मजदूर वर्ग की मुक्ति की बात नहीं की है। लेकिन उन्होंने ठेका मजदूरों को नियमित करने (स्थाई करने) की बात कही है। लेकिन दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद जब कुछ ठेका मजदूर दिल्ली के श्रम मंत्री से मिले और ठेका मजदूरों को स्थाई बनाने की मांग की, तो मंत्री ने साफ तौर पर कह दिया कि सरकार के लिए उन्हें स्थाई बनाना संभव नहीं है, उनके (सरकार के) पास यह शक्ति नहीं है। जब मजदूरों ने श्रम मंत्री से अनुरोध किया कि वे कम से कम केन्द्र सरकार से उन्हें स्थाई बनाने की सिफारिश ही कर दें, तो मंत्री ने साफ इंकार कर दिया। असल में चाहे जिस पार्टी की भी सरकार हो, किसी भी सरकार के लिए ऐसा कुछ भी करना संभव नहीं है जिससे पूंजीपति वर्ग के हितों पर आंच आती हो। और यही कारण है कि सरकार बनाने के बाद से आम आदमी पार्टी का सुर बदलने लगा है।

पार्टी देश पर राज नहीं करती है, देश पर वर्ग राज करता है।

अभी तक हमने यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि राज पार्टी का नहीं होता है, यह राज वर्ग का होता है। और यह बात सिर्फ हमारे देश या मौजूदा समाज के लिए ही सच नहीं है। यह एक ऐसा सच है जो समाज के शोषितों और शोषकों के बीच विभाजित होने के समय से लागू होता है। राजाओं-रानियों के काल में बड़े जमींदारों के हितों के अनुसार राज चलाया जाता था। उस वक्त राजा या सम्राट और उसके मंत्री - सेना पति आदि राज किया करते थे। राजकाज चलाने में आम आदमी की कोई भूमिका नहीं थी। उस वक्त पूंजीपति एक नये वर्ग के तौर पर उभर रहे थे। उनके पास भी कोई अधिकार नहीं थे। पूंजीपतियों ने उस दौर में जनता के लिए राजनीतिक शक्ति की जो मांग की थी, लोकतंत्र के लिए जो आवाज उठाई थी, वह असल में उनके अपने हित में थी।
जैसे-जैसे समाज में पूंजीपतियों की ताकत बढ़ी और जैसेे-जैसे जमींदारों की ताकत कम हुई पुराना जमींदारी राज उसी हद तक निरर्थक बनता गया। उसकी जगह आया लोक तंत्र संसदीय लोकतंत्र जहां जनता अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान करती है और इन प्रतिनिधियों के जरिए देश की सरकार बनाई जाती है। पहले की राजशाही व्यवस्था की तुलना में एक बदलाव आया है। पहली व्यवस्था में शोषित जनता के पास कोई अधिकार नहीं था।
अब उनके पास कम से कम एक अधिकार है और वह है अपने प्रतिनिधि चुनने का हक। लेकिन सिर्फ इतना ही। क्योंकि उनके प्रतिनिधि भी बस लगभग शक्तिहीन ही हैं। वे नीति तो बना सकते हैं लेकिन इन नीतियों को लागू करने की शक्ति उनके पास नहीं है। यह शक्ति है प्रशासन-पुलिस सेना-कानूनी व्यवस्था वाली बड़ी मशीनरी के पास। और इस मशीन को जनता न चुनती है, न बदल सकती है और नियंत्रित करने की तो बात ही न कीजिए। चुनी हुई सरकार के परदे के पीछे से यही मशीनरी राज चलाती है। उन्हें मोटी तनख्वाहें मिलती है - और इस कारण पूंजीपतियों के बीच उनकी उठ बैठ होती है, उनका मेल जोल चलता है। इसके अलावा पूंजीपतियों के साथ कई दूसरे अदृश्य धागों के जरिए इनका जुड़ाव रहता है। हम वोट डालते हैं, पार्टी को चुनते हैं, उन्हें सरकार बनाने के लिए भेजते हैं और सोचते हैं कि जिस पार्टी को हमने चुना हैं वही देश का राज चला रही है। असलियत ऐसी नहीं है। असलियत में चुनी हुई सरकार के पीछे से पूंजीपति वर्ग राज करता है और यह काम वह इस प्रशासनिक मशीनरी के जरिए करता है। इस कारण मजदूर वर्ग या मेहनतकश जनता चुनावों के जरिए सरकारोें को बदल कर शोषण से आजाद नहीं हो सकता है। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी चुनावों के जरिए आप इन्हें अपनी जिंदगी से बाहर नहीं कर सकते हैं। इस काम को करने के लिए मजदूर वर्ग को राज सत्ता हासिल करनी है। इस काम को वोट के जरिए नहीं किया जा सकता है। इसके लिए मजदूर वर्ग को राज सत्ता पर कब्जा करना है, एक ऐसा राज स्थापित करना हे जहां चुने हुए प्रतिनिधि कानून भी बनाएंगे और देश को चलाएंगे भी। जनता के पास जैसे चुनने का अधिकार होगा, वैसे ही चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी होगा। और यह सुनिश्चित करने के लिए, कि चुने हुए प्रतिनिधी मजदूर वर्ग के हितों की पूर्ति से न भटक जाये, उनका वेतन एक आम मजदूर के बराबर होगा। सिर्फ एक ऐसा राज ही शोषित जनता के हित में काम कर सकता है।




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