इस देश की कट्टर हिंदू साम्प्रदायिकता की ख़िलाफ़त किए बगैर बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों पर साम्प्रदायिक दंगे का विरोध पूरा नहीं हो सकता

हाल ही में बांग्लादेश के विभिन्न इलाकों में अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय के लोगों पर मुस्लिम कट्टरपंथी साम्प्रदायिक ताकतों का जो नंगा नाच चला उसमें 6 निर्दोष हिन्दुओ की मौत हो गई है। कई दुर्गा पूजा मंडपों में तोडफोड़ की गई है, कई लोगों के घर लूटे गए हैं। लोकतंत्र की एक मूलभूत शर्त है हर धार्मिक समुदाय के धर्माचरण की आज़ादी। सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों का पूजा पंडालों और मंदिरों पर हमला दिखाता है भारत की ही तरह बांग्लादेश का लोकतंत्र भी कितना सीमित है। इस देश के काफी लोग हिंदुओं पर हमले को लेकर मुखर हुए हैं। लेकिन, यह हमला क्या सिर्फ हिंदुओं पर ही है। या यह हमला लोकतंत्र पर है ? इस हमले में क्या सिर्फ हिंदुओं को नुकसान हुआ ? बिल्कुल नहीं। इस तरह देखने का मायने दरअसल इस घटना को एक दूसरे, विपरीत सांप्रदायिकता के चश्मे से देखना है । असल खामियाज़ा तो ग़रीब मेहनतकश लोगों को ही उठाना पड़ रहा है चाहे वे किसी भी धर्म के हों । इस तरह की घटना समाज में साम्प्रदायिकता को भड़काएगी। इसके फलस्वरुप मेहनतकश लोगों की ज़िन्दगी की जो असली समस्या – यानी उनका रोज़ी-रोटी का समस्या, उनके ऊपर चल रहे पूंजीपति और जमींदारों के शोषण का समस्या, उन समस्यायों के जड़ में जो कारण है उसे तलाशने के लिए मेहनतकश लोगों का जो नजरिया अपनाना पड़ता है, वह नजरिया ही धुंधला हो जाता है। साम्प्रदायिकता एक धर्म के लोगों को सिखाता है उसके शोषक नहीं, बल्कि दूसरे धर्म के गरीब मेहनतकश लोग ही उनके दुश्मन है और इस तरह सांप्रदायिकता शोषण मुक्ति की लड़ाई के रास्ते पर रोड़े डालता है। बांग्लादेश के हाल के दंगो का दो तरह से विरोध किया जा सकता है। या तो, लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य से और मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से, सभी गरीब लोगों के स्वार्थ की जगह से, चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हो। और नहीं तो हिंदू साम्प्रदायिकतावादियों की स्थिति से जिसका अर्थ है एक साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर दूसरी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना।

सही में यह अंतिम काम ही कर रही है आरएसएस-भाजपा जैसे चरम हिंदू साम्प्रदायिक लोग जो लोग बांग्लादेश में अल्पसंख्यको के उत्पीड़न के इस घटना को हिंदू साम्प्रदायिकता बढ़ाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं । जो लोग इस देश में मुस्लिम सहित भिन्न भिन्न अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर लगातार हमले का षडयंत्र चला रहे हैं, जो लोग विभिन्न तरीकों से अल्पसंख्यक लोगों का अधिकार छीनने की साजिश रच रहे हैं, यहाँ तक की सीएए-एनआरसी जैसे भेदभावपूर्ण कानून लागू कर उन लोगों की नागरिकता के अधिकार भी छीनने की साजिश रच रहे हैं । अब वही लोग फिर जब दूसरे देशों में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का विरोध करते हैं तब उनकी साजिश का असली मक़सद समझने में कोई दिक्कत नहीं होती है।

एक तरफ इस देश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के अनगिनत घटना को बांग्लादेश सहित विभिन्न जगहों के मुस्लिम कट्टरपंथी व साम्प्रदायिक ताकतें हिंदुओ के विरोध करने के लिए इस्तेमाल कर रहे है, और दूसरी तरफ कट्टर हिंदू साम्प्रदायिक ताकत बांग्लादेश सहित विभिन्न जगहों में मुस्लिम कट्टरपंथी व सांप्रदायिक ताकतों के हरकत को अपने हथकंडे के औज़ार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं । इससे यह उजागर हो रहा है कि हिंदू व मुस्लिम यह दोनों साम्प्रदायिकता एक दूसरे की दुश्मन नहीं है, बल्कि एक दूसरे के करीबी दोस्त हैं। दोनों का ही मकसद है समाज में सांम्प्रदाय़िक विभाजन को बढ़ाना और इसमें एक का काम दूसरे को मदद करती है।

हमलोग यह बात जानते हैं कि बांग्लादेश की साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ संघर्ष की एक उज्ज्वल परंपरा रही है। बांग्लादेश के जन्म के पहले भी ऐसे धारा थी, बांग्लादेश के जन्म के समय तो पूर्वी पाकिस्तान की बंगाली जनता ने इस्लामी कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ एक घातक संघर्ष किया था, संघर्ष करने वालों में हर धर्म के लोग थे। इसी सिलसिले में कुछ दिन पहले ढाका के शाहबाग चौक में 1971 के युद्ध अपराधियों, कट्टरपंथी नेताओं को सजा की मांग लेकर वे एक जबरदस्त संघर्ष खड़ा किया गया । उस शाहबाग आंदोलन के दबाव की वजह से अवामी लीग सरकार कई पुराने युद्ध अपराधियों को फांसी तक देने के लिए मजबूर हुयी थी। आज भी बांग्लादेश का छात्र-बुद्धिजीवी तबका राज मार्ग पर उतर कर हालिया सांप्रदायिक हमले के ख़िलाफ़ ज़ोरदार आंदोलन कर रहे हैं। वे लोग इस सांम्प्रदायिक हमले से जुड़े कट्टरपंथी, साम्प्रदायिक ताकतों के लिए मिसाल क़ायम करने वाली सजा की मांग कर रहे हैं। इस्लाम धर्म बांग्लादेश का राज्य धर्म है – इसको भी खत्म करने का मांग वे उठा रहे हैं । जुलूस से आवाज़ बुलंद हो रहा है--`जिसका धर्म उसके पास, राजसत्ता का क्या कहना’।

यह एक क्रूर मजाक है कि जिस देश के साम्प्रदायिक नेता गुजरात नरसंहार को अंजाम देने के अपराध में, अदालत द्वारा उम्रकैद के फैसले के बाद भी खुले आसमान के नीचे बेफ़िक्र घूम रहे हैं, जो लोग भारत में जितना भी छिटपुट धर्मनिरपेक्षता का पर्दा है उसे भी उखाड़ फेंक कर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए खुल्लम खुल्ला साजिश चला रहे हैं, आज वही लोग यह बात समझाने में लगे हैं कि बांग्लादेश के सभी मुस्लिम साम्प्रदायिक हैं, बांग्लादेश में हिंदुओं की कोई सुरक्षा नहीं है और इसलिए वे लोग इतना चिंतित है एवं सीएए-एनआरसी जैसे साम्प्रदायिक कानून लागू किए हैं । सांप्रदायिक दंगों के खून से सना हिंदू साम्प्रदायिक ताकतों को बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों के ऊपर उत्पीड़न का विरोध करने का कोई हक़ नहीं है। इस देश के हिंदुओ को, खास कर बंगाली हिंदू आम मेहनतकश लोगों को यह बात समझना होगा कि आरएसएस – भाजपा सहित हिंदू साम्प्रदायिक तत्वों का अल्पसंख्यकों के लिए आंसू बहाने के पीछे साम्प्रदायिक नफ़रत बढ़ाने की साजिश छिपी हुई है।

यह सच है कि बांग्लादेश में साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ संघर्ष की एक धारा है, लेकिन उस देश में इस्लामी कट्टरपंथ व साम्प्रदायिक ताक़त समूह भी लंबे समय से ही काफी हद तक सक्रिय रहे है। कई बार ऐसे ताक़त को उभरते देखा गया है। इन कट्टरपंथियों का हमला का शिकार सिर्फ़ अल्पसंख्यक हिंदू लोग ही नहीं है, लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रहे हैं ऐसे बुद्धिजीवी उनके हमले का शिकार हुए हैं। उनके हमला का शिकार हुए हैं ब्लॉग चलाने वाले नास्तिक लोग। ठीक जैसे इस देश में कट्टर हिंदूत्व के निशाने में सिर्फ अल्पसंख्यक मुस्लिम लोग ही नहीं, लोकतंत्र के पक्ष में संघर्ष में शामिल छात्र-बुद्धिजीवी या यहाँ तक कि नरेन्द्र दाभोलकर या गौरी लंकेश जैसे तर्कशील, प्रतिवादी लोग भी हैं। भाजपा-आरएसएस खुद को आईने के सामने खड़ा करेगी तो खुद की परछाई में बांग्लादेश के इन कट्टरपंथी- साम्प्रदायिक तत्वों का साया देख पायेगी । हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत के मजदूर किसान सहित लोकतांत्रिक लोगों के समक्ष कट्टर हिंदुत्व विचारधारा के धारक यह सारे संगठन कई ज्यादा ख़तरनाक है। क्योंकि ये सारे संगठन सिर्फ़ साम्प्रदायिक राजनीति का ही अनुसरण नहीं कर रहे हैं, उनकी फासीवादी राजनीति भारत को और ख़तरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।

बांग्लादेश में साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन की मौजूदगी के बावजूद, कट्टरपंथी व साम्प्रदायिक ताक़तों का पनपने का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि वे लोग खास कर गरीब, मेहनतकश जनता के अन्दर काफी हद तक जड़े जमा ली है। गरीब मेहनतकश लोगों के अन्दर साम्प्रदायिकता का प्रभाव बढ़ जाने के पीछे कई कारण है।

पहला तो, बांग्लादेश ही कहे या भारत या पाकिस्तान कहे, भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में साम्प्रदायिकता की जड़ें अविभाजित भारत में है। उसी के नतीजे में, साम्प्रदायिक विभाजन के आधार पर और एक ख़ौफनाक खूनी दंगे के आधार पर ही देश का विभाजन हुआ था। उस साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के पीछे औपनिवेशिक शासकों का बड़ा, या यूं कहा जा सकता है, मुख्य भूमिका थी।

दूसरी बात, उस साम्प्रदायिक इतिहास को मिटाने के बजाय इन सभी देशों के शासक वर्ग साम्प्रदायिकता को बरकरार रखने, उसके पनपने में मदद की है। साम्प्रदायिकता का टिके रहने और फलने-फूलने का एक बड़ा कारण है पिछड़ी हुई उत्पादन प्रणाली और उसके आधार पर खड़ा हुआ पुराना समाज, जिसको जड़ से उखाड़ फेंकने के बदले शासक वर्ग समूह ने उसे बरकरार रखा है। इक्कीसवीं सदी में भी व्यापक लोगों के अंदर, या सामाजिक जीवन में धर्म का प्रभाव, पुराने पिछड़े हुए धार्मिक मूल्य, रूढ़िवादिता, कट्टरपंथी विचारों का प्रभाव, अंधविश्वास व साम्प्रदायिक मानसिकता के टिके रहने का मुख्य कारण है समाज में मौजूद पिछड़ा हुआ उत्पादन संबंध । सिर्फ यही नहीं, शासकवर्ग और उनके प्रतिनिधि विभिन्न राजनीतिक दल, जो लोग सत्ता में काबिज थे, उन सभी ने जनता के ऊपर धर्म व साम्प्रदायिकता के प्रभाव को खुद के स्वार्थ में इस्तेमाल भी किया है। बांग्लादेश में भी सभी सत्ताधारी दल कमोवेश साम्प्रदायिक राजनीति को अपने संकीर्ण स्वार्थ में इस्तेमाल किया है। इस कारण ही राष्ट्रीयता के संघर्ष से बना बांग्लादेश खुद को शुरु में धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के बावजूद 1980 के दशक के अंत में इस्लाम को देश का राज्य धर्म घोषित किया। बांग्लादेश युद्ध के समय राजाकार वाहिनी के जिन साम्प्रदायिक, कट्टरपंथी नेताओं ने स्वतंत्रता-प्रेमी लोगों की अंधाधुंध हत्या किया था, जो लोग बांग्लादेश गठन के बाद देश छोड़ कर भाग गये थे, शासक दलों के मदद से वही लोग फिर आहिस्ता आहिस्ता लौट कर नए सिरे से फिर नफ़रत और सांप्रदायिक विभाजन की नींव डालना शुरु किए। कट्टरपंथी, साम्प्रदायिक तत्व सिर्फ़ बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) में ही भीड़ लगाए थे बात ऐसा नहीं है, अवामी लीग ने भी उनलोगों का इस्तेमाल किया है। इस बार के इस दंगा में सत्तापक्ष के नेताओं के शामिल होने का आरोप काफ़ी ज़ोरदार था।

तीसरी बात, 1980 के दशक के अंतिम चरण से साम्प्रदायिकता के बढ़ते प्रभाव का एक प्रमुख कारण है विश्व सर्वहारा की समाजवाद के संघर्ष के पराजय की घटना। 1960 या सत्तर के दशक में साम्प्रदायिकता का प्रभाव कुछ हद तक दबे हुए रहने पर भी अस्सी के दशक के अंत से साम्प्रदायिकता फिर से उभरना शुरु हुआ। यह जैसे भारत में देखने को मिला, वैसे ही बांग्लादेश में । यह कोई संयोग नहीं है कि विश्व सर्वहारा संघर्ष के पराजय की घटना भी उसी दौरान सोवियत रशिया सहित पूर्वी यूरोप के पतन के मध्य से प्रकट हुआ। समाजवाद की विचारधारा ने एक समय करोड़ों मेहनतकश लोगों को रास्ता दिखाया था। लेकिन, सर्वहारा समाजवादी आंदोलन की पराजय के नतीजे में समाजवाद की विचारधारा ने मजदूर सहित मेहनतकश लोगों के पास अपना आकर्षण खोना शुरु कर दिया । विचारधारा की दुनिया में इस खालीपन को साम्प्रदायिकता, कट्टरता जैसी सोच ने भरना शुरु किया। यह घटना सिर्फ उपमहाद्वीप के देशों का ही मामला नहीं है। मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में कट्टरपंथी ताकतों का उदय हुआ । यूरोप और अमेरिका के देशों में चरम दक्षिणपंथी, नस्लवादी ताकते बढ़ी है। इस समय साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में मजदूर, किसान सहित मेहनतकश लोगों के ऊपर पूंजीपतियों का हमला बेरहमी से बढ़ गया है। सर्वहारा संघर्ष के पराजय के फलस्वरूप, मजदूर वर्ग की पार्टी न रहने के कारण इस हमला का मुकाबला मजदूर सहित मेहनतकश जनता न कर पायी, न कर पा रही है। वर्ग संघर्ष की कमजोरी के कारण साम्राज्यवाद व इजारेदार पूंजी के इस हमले के ख़िलाफ़ मजदूर व मेहनतकश लोग निस्सहाय रूप में मार खा रहे हैं। जीवन के इस घोर संकट से बचने की चाहत उनलोगों को, खासकर पिछड़े, शोषित जनता को ज्यादा से ज्यादा कट्टरपंथियो के चंगुल में धकेल रहा है। इसके नतीजे में व्यापक शोषित, उत्पीड़ित लोगों को साम्प्रदायिकता, कट्टरपंथ प्रभावित कर पा रहा है, उनकी चेतना को कुंद कर पा रहा है।

बुद्धिजीवियों के अंदर से साम्प्रदायिकता व धार्मिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़, लोकतंत्र के पक्ष में जो जोरदार आवाज़ बुलंद हो रहा है यह काफ़ी अहम है, लेकिन जिस लोकतंत्र के दायरे के अंदर ही उनलोगों का विरोध सीमित है, जिस लोकतंत्र के पक्ष में वे लोग आवाज़ उठा रहे हैं, वह लोकतंत्र आज के समय का बुर्जुआ लोकतंत्र है, और वह लोकतंत्र कितना सीमित, सिमटा हुआ है वह तो हमलोग अपने रोजाना अनुभव से समझ रहे हैं। इस लोकतंत्र में सभी लोगों का समानाधिकार संभव नहीं है। इस लोकतंत्र में असली धर्मनिरपेक्षता यानी राज्य-राजसत्ता से धर्म का पृथक्करण संभव नहीं है। इस लोकतंत्र में सभी धर्म का समान अधिकार, धर्माचरण का स्वतंत्रता भी संभव नहीं है। सच्चा लोकतंत्र तभी कायम हो सकता है जब मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश जनता सत्ता पर काबिज़ होकर देश का संचालन करेगा। यह रास्ता ही साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ से मुक्ति का असली रास्ता है। जबतक शोषित और मेहनतकश जनता को साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथा के प्रभाव से मुक्त नहीं किया जा सकेगा, तब तक साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ को शिकस्त देना संभव नहीं है। एकमात्र वर्ग संघर्ष का विकास ही शोषित, मेहनतकश जनता को साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ के प्रभाव से मुक्त कर सकता है। उस वर्ग संघर्ष के निर्माण के लक्ष्य, साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ संघर्ष में नेतृत्व देने के लिए हमलोग आह्वान करेंगे बांग्लादेश के अगुवा मजदूरों को। सिर्फ़ बांग्लादेश ही नहीं, भारत और उपमहाद्वीप के हर देश के अगुवा मजदूरों का कट्टरपंथ और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष तैयार करने का, उस संघर्ष में नेतृत्व देने का जिम्मेदारी है। हमलोगों का विश्वास है कि एक न एक दिन इस उपमहाद्वीप के सभी देश के मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता कंधा में कंधा मिलाकर क्रान्तिकारी लड़ाई तैयार कर दमनकारी शासकवर्ग को उखाड़ फेकेंगे और पुराने उत्पादन प्रणाली के सभी अवशेषों को समाज से हटा कर समाज को साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ से मुक्त करेंगे। उस लक्ष्य में मजदूर वर्ग को जागरूक करना होगा उन लोगों के अगुवा दस्ता को संगठित करना होगा। यही धार्मिक कट्टरपंथ साम्प्रदायिकता को रोकने का एकमात्र उपाय है।

अक्टूबर 2021 सर्वहारा पथ




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